सहायक प्रो. प्यार सिंह ठाकुर
भारत के इतिहास में ‘सेना’ का उल्लेख वेदों, रामायण तथा महाभारत में मिलता है। महाभारत में सर्वप्रथम सेना की इकाई ‘अक्षौहिणी’ उल्लिखित है। प्रत्येक ‘अक्षौहिणी’ सेना में पैदल, घुडसवार, हाथी, रथ आदि की संख्या निश्चित होती थी। प्राचीन काल से ही भारत में सुप्रशिक्षित, सुसंगठित तथा युद्ध कला में निपुण सेना थी। इसके उल्लेख महाकाव्यों, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति, जैन व बौद्ध ग्रंथों, यूनानी ग्रंथों, अभिलेखों जैसे, हाथी गुम्फा अभिलेख, रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख, इत्यादि में मिलते हैं। वैदिक काल में सेना के तीन अंग होते थे- पदाति (पैदल), रथ एवं अश्व। महाकाव्य काल में और मौर्य काल में चतुरंगिणी सेना का आरम्भिक तथा विकसित रूप देखने को मिलता है। गुप्तकाल तक आते-आते राज्य की संगठित सेना का स्थान सामन्ती सेना ने ले लिया। परन्तु सेना का संगठन प्रायः मौर्यकालीन ही रहा। केवल पदों के नामों में परिवर्तन आया। रथ सेना गुप्तकाल में भी सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग थी। अश्व सेना भी युद्ध में महत्त्वपूर्ण योगदान देती थी परन्तु सीथियन लोगों की सजग एवं चपल अश्व सेना का प्रभाव कम दिखाई देता है। हस्ति सेना का प्रयोग भी गुप्तकाल एवं गुप्तोत्तर काल में होता था। ह्वेनसांग ने भी इसका प्रमाण दिया हैं। अब बात करते हैं मध्यकाल में भारतीय सैन्य व्यवस्था की। आरम्भिक मध्यकाल में सैन्य प्रणाली प्राचीन पद्धति पर ही संगठित थी। तुर्कों के आक्रमण के समय भारतीय सेना की कमजोरी एवं पिछड़ापन स्पष्ट दिखाई दिया। भारतीयों की अपेक्षा तुर्कों के पास श्रेष्ठ घुड़सवार सेना, कुशल व योजनाबद्ध युद्ध-कला, श्रेष्ठ हथियार तथा आयुध सामग्री, साथ ही सैनिकों में लड़ने की उच्चतर प्रवृति, आदि उत्कृष्ट पक्ष सिद्ध हुए। सल्तनत काल में सेना इक्तेदारी प्रथा पर संगठित हुई। सेना के दो विभाग थे- ‘आरिज़-ए-ममालिक’ और ‘नायब आरिज़-ए-ममालिक’। बलबन ने सर्वप्रथम इन विभागों की स्थापना की। अलाउद्दीन की केन्द्रीकरण की प्रवृति के कारण यह विभाग ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहे। आधुनिक सैन्य विभाग की तरह सेवा नामावली, टुकड़ियों का चयन, प्रशिक्षण, अनुशासन, पदोन्नति, आपूर्ति संग्रह, युद्ध के विनाश का संग्रह, घोड़ों की नस्लों की सूचना, हाथियों का प्रबन्ध तथा सामान्य प्रबन्ध, शासन के कर्तव्य इत्यादि कार्य ये विभाग करते थे। सेना दशमलव प्रणाली के आधार पर विभाजित थी। सल्तनत काल की सेना चार टुकड़ियों में विभाजित थी- नियमित व स्थायी सेना, प्रान्तीय सेना, विशेष सैनिक टुकड़ी तथा स्वयंसेवी अथवा स्वैच्छिक सैनिक टुकड़ी । मध्यकाल में मुगल सेना सबसे बड़ी सेना थी जो वास्तव में मनसबदारों की सेना थी। सैनिकों की भर्ती, नियुक्ति, वेतन सम्बन्धी, सुरक्षा सम्बन्धी हुलिया लिखना, अनुपस्थिति, युद्ध पद्धति का चयन, रणनीति की तैयारी, सेना का विभाजन, नियुक्ति नेतृत्व चयन, इत्यादि कार्य मीर बक्शी करता था। मुगल सेना एकल संगठनात्मक नहीं थी। सामन्त या मनसबदार अपनी-अपनी सैन्य टुकड़ियों के साथ लड़ते थे जिनके सैनिक अपने मनसबदार के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा वफादार थे। आधुनिक काल में भारतीय सैन्य व्यवस्था पर नज़र दौड़ाएं तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आरम्भिक दिनों में ही एक ऐसी प्रतिभावान सेना अस्तित्व में आ गई थी जो भारत की खैबर दर्रे से कन्याकुमारी तक सुरक्षा करती थी। प्रारम्भ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी केवल एक व्यापारिक कम्पनी थी परन्तु भारतीय शासकों की कमजोरी का लाभ उठा कर यह शासक बन गई। 1693 ई. में कम्पनी की सेना में प्रथम बार ब्रिटिश के अलावा देशी सैनिकों की भर्ती की गई। क्लाइव के अर्काट व प्लासी के युद्धों में सफलता में भारतीय सैनिक (मद्रासी, बंगाली, मराठा, राजपूत, आदि) भी बराबर के हकदार थे। सेना का संगठन तीनों प्रेसिडेन्सियों (कलकता, मुम्बई और मद्रास) में किया गया था जिसमें 1770 ई. में 7000 यूरोपीय तथा 30,000 भारतीय सैनिक थे। 1857 ई. में ब्रिटिश सेना में 38,000 यूरोपीय 276 युद्ध राइफल समेत तथा 348,000 देशी टुकडियाँ 248 राइफलों के साथ सम्मिलित थीं। परन्तु इसके बाद ब्रिटिश सैन्य नीति में परिवर्तन आया और सेना में ब्रिटिश या यूरोपीय एवं देशी सैनिकों का अनुपात बंगाल में 2:1, और मद्रास व बम्बई में 3:1 का हो गया। 1889 ई. में इम्पीरियल सर्विस ट्रूप्स की वृद्धि हुई जिसमें विभिन्न 25 देशी राज्यों से लगभग 25,000 घुड़सवार, पैदल, ट्रांसपोर्ट सैनिकों की भर्ती हुई। ये सैनिक विदेशी अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित किए गए थे। इन पलटनों ने देशी राजाओं के अधीन हजारा, गिलगित, होजा, नायर, चित्राल, तिराह, आदि जगहों पर अच्छी सेवाएं प्रदान की। इन इम्पीरियल सर्विस ट्रूप्स के अतिरिक्त देशी राज्यों में ब्रिटिश सरकार के साथ की गई सन्धियों की पालना, राज-समारोह, पुलिस वर्ग तथा अन्य सेवाओं के लिए देशी राज्यों की नियमित व अनियमित ‘पलटन’ की भर्ती की गई। नियमित पलटन को प्रशिक्षण व हथियार भी बेहतर दिये जाते थे। हालांकि भारत में देशी राज्य पश्चिमी रणनीति तथा पश्चिमी युद्ध पद्धति अपनाने लग गए थे। यद्यपि इन्होंने सेना के प्रशिक्षण के लिए विदेशियों की नियुक्ति की, परन्तु इन प्रशिक्षकों की कुशलता अच्छी नहीं थी। अंग्रेज अधिकारी उन्हें अनुशासन, अभ्यास और शस्त्रों का प्रयोग करना सिखाते थे। परन्तु उन्हें अंग्रेजी रणनीति और युद्ध पद्धति नहीं सिखाया जाता था। अतः भारतीय अंग्रेजी युद्ध कला से अनभिज्ञ ही बने रहे। भारतीय सेना की सबसे बड़ी कमजोरी उनको आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी की जानकारी न होना था। इसलिए उनके हथियार सम्यक रूप से उन्नत एवं समयानुकूल नहीं थे। आधुनिक भारत की सेना की नींव आज़ाद हिन्द फ़ौज से मानी जाती है क्योंकि यह वह दौर था जब भारत को पूर्णरूप से आज़ाद करवाने के लिए भारत की ओर से शुद्ध रूप से अपनी सेना की जरूरत समझी जाने लगी ताकि अंग्रेज़ी सरकार से भारत और भारत के बाहर से अंग्रेजों को घेरा जाए और वे भारत को छोड़ने के लिए जल्दी मज़बूर हो सके और यह नेता जी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में सही साबित हुआ और अन्य नेताओं जैसे महात्मा गांधी को सन 1942 में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का व्यापक स्तर पर ऐलान करन पड़ा क्योंकि यही मौका था जब यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश हुकूमत और उनकी सेनाएं हर मोर्चे पर विफल हो रही थी और जान-माल सहित आर्थिक तंगी से जूझ रही थी और द्वितीय विश्वयुद्ध जो सन 1939 में हुआ उसमें भारत की ओर से भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश सेना के साथ शामिल नहीं हुए और ब्रिटिश सरकार कमज़ोर पड़ रही थी जबकि प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार भारतीय सैनिकों के बल पर विश्व में जीत का डंका बजा रही थी। भारत का अंग्रेजों का साथ देने के बदले में भारत को स्वतंत्र करने का ब्रिटिश सरकार ने वचन दिया था जिससे ब्रिटिश सरकार मुकर गई। लेकिन अब भारत के लोग, नेता द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना में शामिल होने की गलती नहीं करना चाहते थे। परंतु महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार के सामने यह भी शर्त रखी थी कि द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत का शामिल होने से पहले भारत को स्वतंत्र करने का ऐलान करें जो ब्रिटिश सरकार को स्वीकार नहीं हुआ। अतः नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज ने ब्रिटिश साम्राज्य को बाहरी देशों में घेरना शुरू किया और भारत की ओर बढ़ने लगी और अंग्रेज हार रहे थे। परिणाम स्वरूप महात्मा गांधी जी को यह आभास हो गया था कि यही मौका है कि भारत से अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकना है और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का बिगुल बजा दिया। दूसरा पहलू यह भी था कि आज़ाद हिंद फौज के साथ जापानी सेना भी अंग्रेजों से लड़ रही थी और रंगून तक पहुंच गई थी, तब महात्मा गांधी जी को यह लगा कि अंग्रेजों को भारत से उखाड़ने के बाद दूसरी विदेशी ताक़त भारत पर काबिज़ न हो जाए तभी गांधी ने अंग्रेज़ो भारत छोड़ो नारे के साथ अंग्रेजी सरकार मुक्त भारत का भारतीयों से आह्वान किया। यह आज़ाद हिंद फौज का ही प्रभाव था कि गांधी जी को बड़े लंबे समय के बाद अंग्रेज़ी सत्ता को उखाड़ने का बीड़ा उठाया। आज़ाद हिन्द फौज का गठन पहली बार मोहन सिंह द्वारा 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में हुआ था। मूल रूप से उस वक्त यह आजाद हिन्द सरकार की सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। जब दक्षिण-पूर्वी एशिया में जापान के सहयोग द्वारा नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने करीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू किया और उसे भी आजाद हिन्द फौज नाम दिया तो उन्हें आज़ाद हिन्द फौज का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज या इण्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ। आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। आज़ाद हिन्द फौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया। एक वर्ष बाद सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। इससे प्रफुल्लित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सौंप दिया। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुययी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे। अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ठ की और आज़ाद हिन्द फौज द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं:-‘मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।” सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड बना कर उन्हें नाम दिये:- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे। 21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।
22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा –
“हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।”
फ़रवरी से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िला में नवम्बर, 1945 ई. को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, आम जनमानस भड़क उठे और और अपने दिल में जल रहे मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे लगाये गये- लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो। विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ करा दिया। निस्सन्देह सुभाष उग्र राष्ट्रवादी थे। उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव भी था और वे भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाने हेतु हिंसात्मक उपायों में आस्था भी रखते थे। इसीलिये उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।” यद्यपि आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों की संख्या के बारे में थोड़े बहुत मतभेद रहे हैं परन्तु ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इस सेना में लगभग चालीस हजार सेनानी थे। इस संख्या का अनुमोदन ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने भी किया है। जब जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा किया था तो लगभग 45 हजार भारतीय सेनानियों को पकड़ा गया था।
वर्तमान समय में भारतीय सशस्त्र सेनाएँ की बात करें तो यह सेनाएं आधुनिक तकनीक से लैस है। यह भारत की शक्ति हैं जो दुश्मन को हर मोर्चे पर मात देने में बेहद सक्षम हैं। भारत गणराज्य की सशस्त्र सेना जिसमे जल,थल एवं वायु सेना सम्मिलित है। भारतीय सशस्त्र सेनाएँ भारत की तथा इसके प्रत्येक भाग की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी हैं। भारतीय सशस्त्र सेनाओं की सर्वोच्च कमान भारत के राष्ट्रपति के पास है। भारतीय सेना के प्रमुख कमांडर भारत के राष्ट्रपति हैं। राष्ट्र की रक्षा का दायित्व मंत्रिमंडल के पास होता है। इसका निर्वहन रक्षा मंत्रालय द्वारा किया जाता है, जो सशस्त्र बलों को देश की रक्षा के संदर्भ में उनके दायित्व के निर्वहन के लिए नीतिगत रूपरेखा और जानकारियां प्रदान करता है। भारतीय शस्त्र सेना में तीन प्रभाग हैं भारतीय थलसेना, भारतीय वायुसेना, भारतीय जलसेना, भारतीय तटरक्षक बल और इसके अतिरिक्त, भारतीय सशस्त्र बलों और अर्धसैनिक संगठनों (असम राइफल्स, और स्पेशल फ्रंटियर फोर्स) और विभिन्न अंतर-सेवा आदेशों और संस्थानों में इस तरह के सामरिक बल कमान अंडमान निकोबार कमान और समन्वित रूप से समर्थन कर रहे हैं डिफेंस स्टाफ। भारत के राष्ट्रपति भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर है। भारतीय सशस्त्र बलों भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय (रक्षा मंत्रालय) के प्रबंधन के तहत कर रहे हैं। 14 लाख से अधिक सक्रिय कर्मियों की ताकत के साथ, यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सैन्य बल है। अन्य कई स्वतंत्र और आनुषांगिक इकाइयाँ जैसे:भारतीय सीमा सुरक्षा बल, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, असम राइफल्स, राष्ट्रीय राइफल्स, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड, इत्यादि। यह दुनिया के सबसे बड़ी और प्रमुख सेनाओं में से एक है। सँख्या की दृष्टि से भारतीय थलसेना के जवानों की सँख्या दुनिया में चीन के बाद सबसे अधिक है। जबसे भारतीय सेना का गठन हुआ है, भारत ने दोनों विश्वयुद्ध में भाग लिया है। भारत की आजादी के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान के खिलाफ तीन युद्ध 1948, 1965, तथा 1971 में लड़े हैं जबकि एक बार चीन से 1962 में भी युद्ध हुआ है। इसके अलावा 1999 में एक युद्ध कारगिल युद्ध पाकिस्तान के साथ दुबारा लड़ा गया। भारतीय सेना परमाणु लैपटॉप, उन्नत तकनीक परमाणु हथियार से लैस है और उनके पास उचित ट्रायड मिसाइल अस्त्र-शस्त्र भी उपलब्ध है। हालांकि भारत ने पहले परमाणु हमले न करने का संकल्प लिया हुआ है। भारतीय सेना की ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र है।