भरमौर के चौरासी मंदिर परिसर में ऐतिहासिक देवदार के वृक्ष के ऊपर झंडा चढ़ाने के साथ ही 8 दिवसीय स्थानीय जातर मेले का शुभारंभ हो गया। रियासती काल से चल रही इस परंपरा के अनुसार पहला मेला नर सिंह भगवान, दूसरा मेला शिवजी भगवान, तीसरा लखना माता, चौथा गणेश जी, पांचवां मेला काॢतकेय भगवान, छठा मेला शीतला माता, सातवां मेला तपस्वी श्री जय कृष्ण गिरी जी महाराज तथा आठवां मेला दंगल के रूप में हनुमानजी को समर्पित होता है। जिस देवता का मेला होता है उससे पहली रात को उसी देवता का जगराता मन्दिर में होता है। सभी पुरुष-महिलाएं अपनी पारंपरिक वेशभूषा में रात को जागरण में नृत्य करते हैं।
भरमौर पंचायत इन स्थानीय जातर मेलों का आयोजन करती है। झंडा चढऩे की रस्म भी रियासती काल से ही शुरू हुई थी। सबसे पहले जगता राम नाम के व्यक्ति इस ऐतिहासिक देवदार के पेड़ के ऊपर झंडा चढ़ाते थे। उसके उपरांत धरकोता गांव के एक व्यक्ति ने एक बार झंडा चढ़ाया। बाद में भरमौर के घराटी परिवार के दिलीप चंद और अब दिलीप चंद के ही पुत्र राजेश उर्फ रंजू पिछले कई वर्षों से इस झंडा रस्म को अदा कर रहे हैं। मान्यताओं के अनुसार यहां देवदार के ऐतिहासिक पेड़ पर वही व्यक्ति झंडा चढ़ा सकता है, जिसे भगवान शिवजी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है अन्यथा 11 टहनियों वाले इस पेड़ के सिरे तक पहुंचने का रास्ता ही नहीं दिखाई देता।
मात्र उस व्यक्ति को ही ऊपर चढऩे का रास्ता दखाई देता है, जिसको ऊपर चढऩे का आदेश होगा। इस देवदार के वृक्ष की 11 टहनियां हैं। इसलिए इसे ग्यारह रुद्र कहा जाता है। इसी कड़ी में श्री कृष्ण जन्माष्टमी के छोटे स्नान से शुरू श्रीमणिमहेश यात्रा भी चलती है जो कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर राधाष्टमी तक यानी 15 दिनों तक रहती है। राधाष्टमी कोमणिमहेश के मुख्य स्नान के बाद ही चौरासी मन्दिर की ये पवित्र छडिय़ां अपने निर्धारित स्थल पर विराजमान होती हैं।